तुम कहते हो
भावनाओं को ना दर्शाऊँ
आंसू ना बहाऊँ
खामोशी से सहता रहूँ
तो,क्या दुखों को पीता रहूँ
मन ही मन घुटता रहूँ
बोझ तले दब जाऊँ
इतना भीतर भर लूं
कभी उठना चाहूँ
उठ ही ना पाऊँ
जानता हूँ तुम इसे
निराशा पूर्ण बात कहोगे
यह सत्य नहीं है
अगर मन की कुंठाओं को
बाहर नहीं निकालूँगा
निश्चित रूप से
निराश हो जाऊंगा
अन्धकार में चले जाऊंगा
उजाले में रह कर ,
उजाले को मुखर बनाना है
तो कुंठा मुक्त होना होगा
तुम ही बताओ
कुंठा की अभिव्यक्ति
क्या कुंठा दूर करने का
उपाय नहीं है ?
प्रश्न उठा कर ही तुमने
मेरे अन्दर एक नयी
कुंठा को जन्म दे दिया
पल पोस कर
विकराल रूप लेने से
पहले ही उसे तत्काल
अभिव्यक्ती कर जड़ से
काटना आवश्यक है
© डा.राजेंद्र तेला,निरंतर
06-05-2012
500-15-05-12
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