सोचता रह जाता हूँ
मन की कशमकश
कह नहीं पाता
तुम भी सोचती रहती हो
कह नहीं पाती हो
हमारी खामोशी
बीच की दूरियां बढ़ा रही है
ना कहने की मजबूरियां
एक बड़े तूफ़ान का
साधन बन रही हैं
क्यों इस तरह भटक कर
स्थिति को
विस्फोटक बनाएं
ना जुड़ने वाले
रिश्ते की नीव रखें
क्यों ना थोड़ा सा
मैं आगे बढूँ
थोड़ा सा तुम आगे बढ़ो
अपनी कुंठाओं के
बाँध को तोड़ दें
एक दूसरे के प्रति पल रहे
अविश्वास के बादलों को
खुल कर बरसने दें
फिर से विश्वास
और प्रेम के
मार्ग पर चलने का
प्रयत्न करें
मन मष्तिष्क से
अहम् के
बोझ को उतार फेंकें
© डा.राजेंद्र तेला,निरंतर
मन की कशमकश
कह नहीं पाता
तुम भी सोचती रहती हो
कह नहीं पाती हो
हमारी खामोशी
बीच की दूरियां बढ़ा रही है
ना कहने की मजबूरियां
एक बड़े तूफ़ान का
साधन बन रही हैं
क्यों इस तरह भटक कर
स्थिति को
विस्फोटक बनाएं
ना जुड़ने वाले
रिश्ते की नीव रखें
क्यों ना थोड़ा सा
मैं आगे बढूँ
थोड़ा सा तुम आगे बढ़ो
अपनी कुंठाओं के
बाँध को तोड़ दें
एक दूसरे के प्रति पल रहे
अविश्वास के बादलों को
खुल कर बरसने दें
फिर से विश्वास
और प्रेम के
मार्ग पर चलने का
प्रयत्न करें
मन मष्तिष्क से
अहम् के
बोझ को उतार फेंकें
© डा.राजेंद्र तेला,निरंतर
20-04-2012
464-45-04-12
अच्छी कविता
उत्तर देंहटाएंपारदर्शिता बनी रहे, कोई बात छिपी न रहे, संबंधों का मूल है यह।
उत्तर देंहटाएंबहुत उम्दा!
उत्तर देंहटाएंशेअर करने के लिए आभार!
बहुत सुंदर प्रस्तुति, बधाई
उत्तर देंहटाएंMY RECENT POST:...काव्यान्जलि ...: यह स्वर्ण पंछी था कभी...
आगे बढने में ही जीवन का सार छिपा हैं
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